“किन्तु हाय, अब मैं वैसा नहीं कर सकता। मुझ को स्वयं अपने जीवन से घृणा हैं अत:
मैं मुक्त भाव से अपना दुखड़ा रोऊँगा। मेरे मन में कड़वाहट भरी है अत: मैं अबबोलूँगा।
हे परमेश्वर, क्या तू मुझे चोट पहुँचा कर प्रसन्न होता है?
ऐसा लगता है जैसे तुझे अपनी सृष्टि की चिंता नहीं है और शायद तू दुष्टों के कुचक्रों का पक्ष लेता है।
किन्तु यह वह है जिसे तूने अपने मन में छिपाये रखा
और मैं जानता हूँ, यह वह है जिसकी तूने अपने मन में गुप्त रूप से योजना बनाई।
हाँ, यह मैं जानता हूँ, यह वह है जो तेरे मन में था।
जब मैं पाप करता हूँ तो
मैं अपराधी होता हूँ और यह मेरे लिये बहुत ही बुरा होगा।
किन्तु मैं यदि निरपराध भी हूँ
तो भी अपना सिर नहीं उठा पाता
क्योंकि मैं लज्जा और पीड़ा से भरा हुआ हूँ।
यदि मुझको कोई सफलता मिल जाये और मैं अभिमानी हो जाऊँ,
तो तू मेरा पीछा वैसे करेगा जैसे सिंह के पीछे कोई शिकारी पड़ता है
और फिर तू मेरे विरुद्ध अपनी शक्ति दिखायेगा।
जो थोड़ा समय मेरा बचा है उसे मुझको जी लेने दो, इससे पहले कि मैं वहाँ चला जाऊँ जिस स्थान को कोई नहीं देख पाता अर्थात् अधंकार, विप्लव और गड़बड़ी का स्थान।
उस स्थान में यहाँ तक कि प्रकाश भी अंधकारपूर्ण होता है।”