“मैं एक यहूदी व्यक्ति हूँ। किलिकिया के तरसुस में मेरा जन्म हुआ था और मैं इसी नगर में पल-पुस कर बड़ा हुआ। गमलिएल के चरणों में बैठ कर हमारे परम्परागत विधान के अनुसार बड़ी कड़ाई के साथ मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई। परमेश्वर के प्रति मैं बड़ा उत्साही था। ठीक वैसे ही जैसे आज तुम सब हो।
“स्वयं महायाजक और बुजुर्गों की समूची सभा इसे प्रमाणित कर सकती है। मैंने दमिश्क में इनके भाइयों के नाम इनसे पत्र भी लिया था और इस पंथ के वहाँ रह रहे लोगों को पकड़ कर बंदी के रूप में यरूशलेम लाने के लिये मैं गया भी था ताकि उन्हें दण्ड दिलाया जा सके।
“मैंने पूछा, ‘हे प्रभु, मैं क्या करूँ?’ इस पर प्रभु ने मुझसे कहा, ‘खड़ा हो, और दमिश्क को चला जा। वहाँ तुझे वह सब बता दिया जायेगा, जिसे करने के लिये तुझे नियुक्त किया गया है।’
और तो और जब तेरे साक्षी स्तिफनुस का रक्त बहाया जा रहा था, तब भी मैं अपना समर्थन देते हुए वहीं खड़ा था। जिन्होंने उसकी हत्या की थी, मैं उनके कपड़ों की रखवाली कर रहा था।’
तभी सेनानायक ने आज्ञा दी कि पौलुस को किले में ले जाया जाये। उसने कहा कि कोड़े लगा लगा कर उससे पूछ-ताछ की जाये ताकि पता चले कि उस पर लोगों के इस प्रकार चिल्लाने का कारण क्या है।
किन्तु जब वे उसे कोड़े लगाने के लिये बाँध रहे थे तभी वहाँ खड़े सेनानायक से पौलुस ने कहा, “किसी रोमी नागरिक को, जो अपराधी न पाया गया हो, कोड़े लगाना क्या तुम्हारे लिये उचित है?”
क्योंकि वह सेनानायक इस बात का ठीक ठीक पता लगाना चाहता था कि यहूदियों ने पौलुस पर अभियोग क्यों लगाया, इसलिये उसने अगले दिन उसके बन्धन खोलदिए। फिर प्रमुख याजकों और सर्वोच्च यहूदी महासभा को बुला भेजा और पौलुस को उनके सामने लाकर खड़ा कर दिया।