وَفِي السَّنَةِ الثَّانِيَةِ مِنْ مَجِيئِهِمْ إِلَى بَيْتِ اللهِ إِلَى أُورُشَلِيمَ، فِي الشَّهْرِ الثَّانِي، شَرَعَ زَرُبَّابَِلُ بْنُ شَأَلْتِئِيلَ وَيَشُوعُ بْنُ يُوصَادَاقَ وَبَقِيَّةُ إِخْوَتِهِمِ الْكَهَنَةِ وَاللاَّوِيِّينَ وَجَمِيعُ الْقَادِمِينَ مِنَ السَّبْيِ إِلَى أُورُشَلِيمَ، وَأَقَامُوا اللاَّوِيِّينَ مِنِ ابْنِ عِشْرِينَ سَنَةً فَمَا فَوْقُ لِلْمُنَاظَرَةِ عَلَى عَمَلِ بَيْتِ الرَّبِّ.
अत: यरूशलेम में मन्दिर पर उनके पहुँचने के दूसरे वर्ष के दूसरे महीने मे शालतीएल के पुत्र जरुब्बाबेल और योसादाक के पुत्र येशू ने काम करना आरम्भ किया। उनके भाईयों, याजकों, लेवीवंशियों और प्रत्येक व्यक्ति जो बन्धुवाई से यरूशलेम लौटे थे, सब ने उनके साथ काम करना आरम्भ किया। उन्होंने यहोवा के मन्दिर को बनाने के लिये उन लेवीवंशियों को प्रमुख चुना जो बीस वर्ष या उससे अधिक उम्र के थे।